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Approach

सुहानुभाव फाँउडेशन समाज और व्यवस्था से संपर्क करेगा और निम्नलिखित तरीके से बच्चों और महिलाओं के कानूनी और सामाजिक अधिकारों के लिए जागरूकता उत्पन्न करेगा:

बच्चों के अधिकारों की रक्षा

उन बच्चों के बारे में सोचें जिन्हे जन्म के बाद या मजबूर परिस्थितियोंवश छोड़ दिया जाता है। उन्हे स्कूल में कदम रखने का अवसर ही नहीं मिलता है। उन्हे गलियों में स्वयं ही अपने पालन के लिए छोड़ दिया जाता है। उन्हे अनेक प्रकार की हिंसा का सामना करना पड़ता है। उन्हे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएँ भी उपलब्ध नहीं होती है। उन्हे प्रतिदिन क्रूर और अमानवीय व्यवहार से गुजरना पड़ता है। वे मासूम, कम उम्र और सुंदर बच्चे हैं, जो अपने अधिकारों से वंचित हैं।

मानवीय अधिकारों के इतिहास में बच्चों के अधिकारों की सबसे अधिक पुष्टि की गई है। बच्चों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समझौते में बच्चों के अधिकारों को परिभाषित किया गया है कि 18 वर्ष से कम आयु के प्रत्येक नागरिक को न्यूनतम हक और स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए चाहे वे कोई भी रेस, मूल राष्ट्र, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, मान्यता, मूल, संपत्ति, जन्म स्थिति, अक्षमता या अन्य विशिष्टाओं से न हों।

सुहानुभाव फाँउडेशन ऐसे बच्चों को शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य और आपात सहायता और साथ ही समान अवसरों के लिए संरचना प्रदान कर सकता है। यद्यपि विचारणीय प्रगति की गई है, फिर भी भारत में बच्चों के अधिकारों के संबंध में अभी बहुत दूर तक जाना है। यद्यपि सभी संबन्धित नियम और नीतियाँ मौजूद हैं, लेकिन अमल में लाने की पहलकदमियां नहीं हैं। बाधक के रूप में अनेक कारक हैं जो क़ानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन में बाधा है। भारत में  बच्चों के विकास के ठोस नतीजों की कम सफलता के कारण, सुविधा से वंचित शिशुओं और सुविधा के वंचित युवाओं की स्थिति कठोर है और इसमें तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। सभी स्तरों पर बच्चों के कल्याण के लिए प्रयासों को तेज करने की आवश्यकता है ताकि समझौते के नियमों और प्रावधानों को कार्यान्वित किया जा सके और बच्चों के लिए एक उपयुक्त संसार बनाया जा सके।

भारत में हमेशा से ही 18 वर्षों से कम की आयु व्यक्तियों को पृथक कानूनी पहचान देने के लिए वर्ग को स्वीकार किया है। यही कारण है कि क्यों लोग 18 वर्षों की आयु प्राप्त करने के बाद ही वोट दे सकते हैं या ड्राइविंग लाइसेन्स प्राप्त कर सकते हैं या विधिक संविदा कर सकते हैं। बाल विवाह नियंत्रण अधिनियम 1929 के अंतर्गत 18 वर्षों से कम आयु की लड़की और 21 वर्ष से कम आयु के लड़कों के विवाह पर रोकथाम है। इसके अतिरिक्त, बच्चों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समझौते को मंजूर करने के बाद, भारत ने किशोर न्याय में परिवर्तन किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि 18 वर्ष की आयु से कम हर व्यक्ति जिसे देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता है राज्य से प्राप्त करने का हकदार है। इसका अर्थ है कि गाँव/नगर/महानगर में 18 वर्ष की आयु से कम सभी व्यक्तियों को बच्चा माना जाएगा और उसे सहायता और समर्थन की आवश्यकता है। किसी व्यक्ति को ‘बच्चा’ बनाने वाली व्यक्ति की ‘आयु’ ही है। यदि 18 वर्ष से कम आयु वाला कोई व्यक्ति विवाहित है और उसके अपने बच्चे हैं, तो भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार उसे बच्चा माना जाएगा।


बच्चों  पर विशेष ध्यान  देने की आवश्यकता क्यों  ?

 

  1. व्यस्क की तुलना में बच्चे उस स्थिति में अधिक कमजोर हैं जिसमें वे रहते हैं।
  2. अंत:, सरकारों और समाज की गतिविधियों और अकर्मण्यता से वे किसी अन्य आयु वर्ग की तुलना में अधिक प्रभावित होते हैं।
  3. अधिकतर समाजों में, जिसमें हम भी शामिल हैं, यह मान्यता है कि बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति होते हैं या वयस्क बनने की राह पर है, या समाज में योगदान देने के लिए तैयार नहीं हैं।
  4. बच्चो ऐसे व्यक्ति नहीं होते हैं, जिनका अपना दिमाग होता है, बताने के लिए दृष्टिकोण होता है, चुनने की क्षमता होती है और निर्णय लेने की क्षमता होती है।
  5. व्यस्कों से मार्गदर्शन के स्थान पर, उनका जीवन व्यस्कों के निर्णय पर होता है।
  6. बच्चों के पास वोट या राजनैतिक प्रभाव नहीं होता है और बहुत कम आर्थिक शक्ति होती है। अकसर उनकी आवाज सुनी नहीं जाती है।
  7. बच्चे विशेष रूप से शोषण और उत्पीड़न के लिए असुरक्षित होते हैं।

बच्चों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समझौता मूल मानव अधिकारों को दर्शाता है, जो बच्चों को चार व्यापक वर्गीकरण में दिए जाने चाहिए और ये उपयुक्त रूप से प्रत्येक बच्चे के सिविल, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों को शामिल करता है:

  • जीवित रहने का अधिकार:
  • सुरक्षा का अधिकार:
  • हिस्सेदारी का अधिकार:
  • विकास का अधिकार:

 

महिला अधिकारों की सुरक्षा

महिला सशक्तिकरण ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें महिलाएं जो विस्तार और फिर से उत्पन्न करती हैं, जो वे किसी परिस्थिति में हो सकती हैं, कर सकती हैं और निष्पादित कर सकती हैं, जो पहले उनके लिए वंचित थे। आपको मालूम है कि महिलाएं सशक्त महसूस करती हैं, जब वे वह कर सकती हैं, जो केवल पुरुषों के लिए थीं? इससे सीमाएं टूटती हैं, इससे स्वतन्त्रता मिलती है और यह सशक्तिकरण है जब आप महसूस करते हैं ‘मैं यह भी कर सकती हूँ’। महिलाओं को सशक्तिकरण से समाज और राष्ट्र का अधिक समावेशी विकास होता है। भारतीय पुराण में महिला शक्ति की देवी और शक्ति की अवतार है. हमारा विश्वास है कि महिला सशक्तिकरण हमारे विकास के लिए महत्वपूर्ण है और मानवता की प्रगति महिला सशक्तिकरण के बिना अधूरी है। भारतीय महिलाएं जीवन के अनेक मार्गों में आगे है और परिवर्तन की वाहक और भारत में बदलाव की साधन हैं।

भारत का संविधान स्वीकार करता है कि महिलाओं के मानवीय अधिकार मजबूत हैं, चाहे वह विवाहित है या नहीं और पहचान और स्वीकृति की हकदार है। अब नीति निर्माता, कानून के परिवर्तन, न्यायपालिका और अन्य को इसके कार्यान्वयन के लिए ठोस कदम उठाने आवश्यक हैं और महिलाओं और कन्याओं को उनके मानव और विधिक अधिकारों को सुनिश्चित करना है। इसे प्रत्येक महिला और कन्या की शारीरिक स्वायत्तता में परिवर्तित होना चाहिए, जिसमें किशोरों में यौन गतिविधि को गैर-अपराधीकरण करना है और उनके प्रजनन अधिकारों का समर्थन करना है।

महिलाओं को अब सुने जाने में एक निश्चित दृश्यता और प्रतिष्ठा है। उनको मीडिया और सोशल मीडिया में सुने जाने की गारंटी है। उत्पीड़न सेक्स के बारे में नहीं है, यह कार्य स्थल में असमानता के बारे में है, महिला के मोल, उसके मन, उसकी क्षमता को मिटाने में और एक शरीर में बदलने में है। और एक महिला जो व्यवसायिक क्षेत्र में उच्च स्थान तक पहुँचती है इस वर्चस्व के ढांचे से छूटी हुई नहीं है, यद्यपि व्यक्तिगत रूप से उसने उसे छोड़ दिया है। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली गैंग रेप के पश्चात एक संक्षिप्त और प्रबल अवधि के लिए और भारत की अपनी गिनती थी, महिलाओं की स्वतंत्रता, उनके पूर्ण अधिकार, उनकी स्वायत्तता जनता के संवाद में आई। हमने यौन हिंसा की सीमा, इसके डर को देखा, जिस प्रकार से इसने संस्थागत विरोध और प्रसिद्ध संस्कृति को बल दिया, जिस प्रकार से महिलाओं की स्वायत्तता को बाँध कर रखा। बलात्कार के क़ानूनों में संशोधन किया गया, पुलिस सुधारों का वादा किया गया। लेकिन वास्तविक परिवर्तन इतने आसान या सीधे नहीं थे, जैसाकि इन क़ानूनों के बाद के जीवन से स्पष्ट होता है। सामाजिक नियम सख्त बने हुए हैं, शक्ति पुरुष ढांचे में है। कुछ इस प्रकार से तब से हमारी आजादी कम हो गई है, जैसे ही रूढ़िवादी शक्तियाँ भारत में प्रबल हो गई। महिलाओं का आंदोलन दशकों से ज़ोर पकड़ रहा है, गहरा हो रहा है और विविधतता उत्पन्न कर रहा है। न्याय की इच्छा बदल रही है- भंवरी देवी, राजस्थानी सामाजिक कार्यकर्ता को, जिसका सामूहिक बलात्कार हुआ था, अभी तक न्याय मिलना बाकी है, लेकिन उसके कारण भारतीय महिलाओं के पास कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न के विरूद्ध एक कानून है। निर्भया आंदोलन चला गया है, लेकिन इसने जिस वर्ग को जागरूक किया वह अभी जागृत और सतर्क है। महिलाओं के अधिकारों को समर्थन सहायक के रूप में और झूठे मन से मिलता है, जैसेकि तीन तलाक मामले में। अधिकार की जटिलता पर अधिक ध्यान है, कैसे स्त्री जाति एक धुरी है, जाति, वर्ग और रेस अन्य हैं और कैसे नारीवाद अर्थपूर्ण होने के लिए उन्हे शामिल करे। अधिक महिलाएं बोल रही हैं, एक दूसरे के संकेतों को प्रोत्साहन दे रही हैं नियमों के विरूद्ध आगे बढ़ रही हैं, पुरुषों के अधिकारों को निश्चित शब्द दे रहीं है जैसे मैनस्पेलिंग, मैनट्रौप्टिंग, मैनेल्स आदि। जिससे हमें सामना करना है, हमें स्वयं को उसकी शक्ति और लचीलेपन से भ्रमित नहीं करना है। असमानता की सच्चाई महिलाओं के जीवन में सब कुछ विकृत कर रही है। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन नियम वही है।

सुहानुभाव इस यात्रा में एक और कदम है।