बाल अधिकारों का प्रचार और संरक्षण

ए-  बाल अधिकारों की प्रमोशन

इन अधिकारों में बच्चों और उनके नागरिक अधिकारों, पारिवारिक पर्यावरण, आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल और कल्याण, शिक्षा, अवकाश और सांस्कृतिक गतिविधियों और विशेष सुरक्षा उपायों की आजादी शामिल है। यूएनसीआरसी उन मौलिक मानवाधिकारों की रूपरेखा तैयार करता है जिन्हें चार व्यापक वर्गीकरणों में बच्चों को दिया जाना चाहिए जो उचित रूप से प्रत्येक बच्चे के सभी नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों को कवर करते हैं:

1. उत्तरजीविता का अधिकार:

  1.     पैदा होने का अधिकार
  2.     भोजन, आश्रय और कपड़ों के न्यूनतम मानकों का अधिकार
  3.     गरिमा के साथ जीने का अधिकार
  4.     स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार, सुरक्षित पेयजल, पौष्टिक भोजन, एक स्वच्छ और सुरक्षित वातावरण, और स्वस्थ रहने में उनकी सहायता करने के लिए जानकारी

2. सुरक्षा का अधिकार:

  1.     हिंसा के सभी प्रकार से संरक्षित होने का अधिकार
  2.     उपेक्षा से संरक्षित होने का अधिकार
  3.     शारीरिक और यौन शोषण से संरक्षित होने का अधिकार
  4.     खतरनाक दवाओं से संरक्षित होने का अधिकार

3. भागीदारी का अधिकार:

  1.     राय की आजादी का अधिकार
  2.     अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार
  3.     एसोसिएशन की आजादी का अधिकार
  4.     सूचना का अधिकार
  5.     किसी भी निर्णय लेने में भाग लेने का अधिकार जिसमें उसे सीधे या परोक्ष रूप से शामिल किया गया हो

3. विकास का अधिकार:

  1.     शिक्षा का अधिकार
  2.     सीखने का अधिकार
  3.     आराम करने और खेलने का अधिकार
  4.     विकास के सभी रूपों का अधिकार - भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक

बी-  बाल संरक्षण मुद्दे

 

  1.     दुर्व्यवहार और हिंसा
  2.     तस्करी
  3.     बाल श्रम
  4.     कानून के साथ संघर्ष
  5.     बाल विवाह
  6.     बाल यौन दुर्व्यवहार
  7.     माता-पिता की देखभाल के बिना
  8.     जन्म पंजीकरण
  9.     सशस्त्र संघर्ष
  10.     विकलांगता
  11.     दवाई का दुरूपयोग
  12.    बालिका 
  13.     एचआईवी एड्स
  14.     ग़ुम बच्चे

महत्वपूर्ण कानून:


1. बाल अधिकार संरक्षण के लिए राष्ट्रीय आयोग (एनसीपीआरसी)

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एन- सी- पी- सी- आर-) की स्थापना संसद के एक अधिनियम (दिसम्बर 2005) बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 के अंतर्गत मार्च 2007 में की गई थी। आयोग का अधिदेश यह सुनिश्चित करना है कि समस्त विधियाँ, नीतियां कार्यक्रम तथा प्रशासनिक तंत्र बाल अधिकारों के संदर्श के अनुरूप हों, जैसाकि भारत के संविधान तथा साथ ही संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन (कन्वेशन) में प्रतिपाादित किया गया है। बालक को 0 से 18 वर्ष के आयु वर्ग में शामिल व्यक्ति के रूप में पारिभाषित किया गया है। आयोग अधिकारों पर आधारित संदर्श की परिकल्पना करता है, जो राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों में प्रवाहित होता है, जिसके साथ राज्य, जिला और खण्ड स्तरों पर पारिभाषित प्रतिक्रियाएं भी शामिल है, जिसमें प्रत्येक क्षेत्र की विशिष्टताओं और मजबूतियों को भी ध्यान में रखा जाता है प्रत्येक बालक तक पहुंच बनाने के उद्देश्य से, इसमें समुदायों तथा कुटुम्बों तक गहरी पैठ बनाने का आशय रखा गया है तथा अपेक्षा की गई है कि क्षेत्र में हासिल किए गए सामूहिक अनुभव पर उच्चतर स्तर पर सभी प्राधिकारियों द्वारा विचार किया जाएगा। इस प्रकार, आयोग बालकों तथा उनकी कुशलता को सुनिश्चित करने के लिए राज्य के लिए एक अपरिहार्य भूमिका, सुदृढ़ संस्था-निर्माण प्रक्रियाओं, स्थानीय निकायों और समुदाय स्तर पर विकेन्द्रीकरण के लिए सम्मान तथा इस दिशा में वृहद सामाजिक चिंता की परिकल्पना करता है।


2. बाल विवाह अधिनियम 2006 

बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 (Prohibition of Child marriage Act 2006) भारत का एक अधिनियम है जो ०१ नवम्बर २००७ से लागू हुआ। इस अधिनियम के अनुसार, बाल विवाह वह है जिसमें लड़के की उम्र २१ वर्ष से कम या लड़की की उम्र १८ वर्ष से कम हो। ऐसे विवाह को बाल विवाह निषेध अधियिम 2006 द्वारा प्रतिबंधित किया गया है। बालविवाह को रोकने के लिए इतिहास में कई लोग आगे आये जिनमें सबसे प्रमुख राजाराम मोहन राय, केशबचन्द्र सेन जिन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा एक बिल पास करवाया जिसे Special Marriage Act कहा जाता हैं इसके अंतर्गत शादी के लिए लडको की उम्र 18 वर्ष एवं लडकियों की उम्र 14 वर्ष निर्धारित की गयी एवं इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। फिर भी सुधार न आने पर बाद में Child Marriage Restraint नामक बिल पास किया गया इसमें लडको की उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष और लडकियों की उम्र बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गयी। स्वतंत्र भारत में भी सरकार द्वारा भी इसे रोकने के कही प्रयत्न किये गए और कही क़ानून बनाये गए जिस से कुछ हद तक इनमे सुधार आया परन्तु ये पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ। सरकार द्वारा कुछ क़ानून बनाये गए हैं जैसे बाल-विवाह निषेध अधिनियम 2006 जो अस्तित्व में हैं। ये अधिनियम बाल विवाह को आंशिक रूप से सीमित करने के स्थान पर इसे सख्ती से प्रतिबंधित करता है। इस कानून के अन्तर्गत, बच्चे अपनी इच्छा से वयस्क होने के दो साल के अन्दर अपने बाल विवाह को अवैध घोषित कर सकते है। किन्तु ये कानून मुस्लिमों पर लागू नहीं होता जो इस कानून का सबसे बड़ी कमी है। बालविवाह के केवल दुस्परिणाम ही होते हैं जीनमें सबसे घातक शिशु व माता की मृत्यु दर में वृद्धि | शारीरिक और मानसिक विकास पूर्ण नहीं हो पता हैं और वे अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वेहन नहीं कर पाते हैं और इनसे एच.आई.वि. जेसे यौन संक्रमित रोग होने का खतरा हमेशा बना रहता हैं।

3. बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986

. लोकसभा ने 26 जुलाई 2016 को बालश्रम निषेध और विनियमन संशोधन विधेयक 2016 पारित कर दिया. संशोधित विधेयक में सभी व्यवसायों या उद्योगों में चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से काम करवाना प्रतिबंधित किया गया है. इस विधेयक में 14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए परिवार से जुड़े व्यवसाय को छोड़कर विभिन्न क्षेत्रों में काम करने पर पूर्ण रोक का प्रावधान किया गया है. यह संगठित और असंगठित क्षेत्र दोनों पर लागू होता है. इसके अलावा 14 से 18 साल तक के किशोरों को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माने जाने वाले उद्योगों को छोड़ कर दूसरे कारोबार में कुछ शर्तों के साथ काम करने की छूट मिल जाएगी. इस आयु वर्ग के बच्चों से किसी खतरनाक उद्योग में काम नहीं कराया जाएगा. इसे शिक्षा का अधिकार, 2009 से भी जोड़ा गया है और बच्चे अपने स्कूल के समय के बाद पारिवारिक व्यवसाय में घर वालों की मदद कर सकते हैं. लोकसभा ने बालक श्रम प्रतिषेध और विनियमन कानून 1986 में संशोधन के प्रावधान वाले बालक श्रम प्रतिषेध और विनियमन संशोधन विधेयक, 2016 को ध्वनिमत से पारित कर दिया है. और राज्यसभा में यह विधेयक पहले ही पारित हो चुका है.

4. शिक्षा का अधिकार अधिनियम

शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने संबंधी कानून के लागू होने से स्वतंत्रता के छ: दशक पश्चात् बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का सपना साकार हुआ है । यह कानून 1 अप्रैल, 2010 से लागू हो गया । इसे बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 नाम दिया गया है । इस अधिनियम के लागू होने से 6 से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को अपने नजदीकी विद्यालय में निःशुल्क तथा अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा पाने का कानूनी अधिकार मिल गया है । इस अधिनियम की खास बात यह है कि गरीब परिवार के वे बच्चे, जो प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं, के लिए निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा गया है । शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने से 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को न तो स्कूल फीस देनी होगी, न ही यूनिफार्म, बुक, ट्रांसपोर्टेशन या मीड-डे मील जैसी चीजों पर ही खर्च करना होगा । बच्चों को न तो अगली क्लास में पहुँचने से रोका जाएगा, न निकाला जाएगा । न ही उनके लिए बोर्ड परीक्षा पास करना अनिवार्य होगा ।

5. बाल तस्करी

यूनिसेफ के मुताबिक, 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को देश के भीतर या बाहर शोषण के उद्देश्य के लिए भर्ती, परिवहन, स्थानांतरित या आश्रय दिया जाता है, बाल तस्करी के अपराध में पड़ता है।


बच्चों के लिए तस्करी क्या हैं?

ए- श्रम

  1.     बंधुआ मजदूर
  2.     घरेलू कार्य
  3.     कृषि श्रम
  4.     निर्माण कार्य
  5.     औपचारिक और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में कालीन उद्योग, परिधान उद्योग, मछली / झींगा निर्यात के साथ-साथ काम की अन्य साइटें।

बी-  अवैध गतिविधियां

  1.     भीख मांगना
  2.     अंग व्यापार
  3.     ड्रग पेडलिंग तस्करी
  4.     यौन शोषण
  5.     जबरन वेश्यावृत्ति
  6.     सामाजिक और धार्मिक रूप से पवित्र वेश्याओं
  7.     सेक्स पर्यटन
  8.     कामोद्दीपक चित्र

सी-  मनोरंजन और खेल

  1.     सर्कस, नृत्य troupes, बियर सलाखों आदि
  2.     ऊंट जॉकी

डी-  शादी के लिए और उसके माध्यम से
ई-  गोद लेने के लिए और के माध्यम से

 

6. 'पाक्सो ऐक्ट' या POCSO act

POCSO का पूरा नाम है The Protection Of Children From Sexual Offences Act या प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्राम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट । ये विषेष कानून सरकार ने साल 2012 में बनाया था। इस कानून के जरिए नाबालिग बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराध और छेड़छाड़ के मामलों में कार्रवाई की जाती है।

यह एक्ट बच्चों को सेक्सुअल हैरेसमेंट, सेक्सुअल असॉल्ट और पोर्नोग्राफी जैसे गंभीर अपराधों से सुरक्षा प्रदान करता है। वर्ष 2012 में बनाए गए इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सजा तय की गई है।

यह अधिनियम पूरे भारत पर लागू होता है, पॉक्सो कनून के तहत सभी अपराधों की सुनवाई, एक विशेष न्यायालय द्वारा कैमरे के सामने बच्चे के माता पिता या जिन लोगों पर बच्चा भरोसा करता है, उनकी उपस्थिति में होती है।

यदि अभियुक्त एक किशोर (टीनएज) है, तो उसके ऊपर किशोर न्यायालय अधिनियम में केस चलाया जाएगा। इस एक्ट में ये भी नियम है कि यदि कोई व्यक्ति यह जनता है कि किसी बच्चे के साथ गलत कृत्य हुआ तो उसके इसकी रिपोर्ट नजदीकी थाने में देनी चाहिए, यदि वो ऐसा नहीं करता है तो उसे 6 महीने तक की जेल हो सकती है।

पुलिस की यह जिम्मेदारी बनती है कि मामले को 24 घंटे के अन्दर बाल कल्याण समिति की निगरानी में लाये ताकि CWC बच्चे की सुरक्षा और संरक्षण के लिए जरूरी कदम उठा सके। इस अधिनियम में बच्चे की मेडिकल जांच के लिए प्रावधान भी किए गए हैं, जो कि इस तरह की हो ताकि बच्चे के लिए कम से कम पीड़ादायक हो। मेडिकल जांच बच्चे के माता-पिता या किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति में किया जाना चाहिए, जिस पर बच्चे का विश्वास हो, और पीड़ित अगर लड़की है तो उसकी मेडिकल जांच महिला चिकित्सक द्वारा ही की जानी चाहिए।

इस केस की सुनवाई बंद कमरे में करने का प्रावधान है और इस दौरान बच्चे की पहचान गुप्त रखना भी जरूरी है। स्पेशल कोर्ट, उस बच्चे को दिए जाने वाली मुआवजे की राशि भी तय कर सकता है।

7. किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015

जुवेनाइल जस्टिस बिल 22 दिसंबर, 2015 को राज्यसभा में ध्वनिमत के साथ पारित हो गया. यह बिल दिल्ली गैंगरेप मामले के तीन साल बाद पास हुआ है. इस विधेयक में जघन्य अपराधों में लिप्त 16 से 18 आयुवर्ग के किशोरों के लिए सजा का प्रावधान वयस्क व्यक्ति के समान किए जाने का प्रावधान है. लोकसभा में कुछ संशोधनों के बाद यह विधेयक मई 2015 में ही पास हो चुका है.

नए बिल के मुताबिक, नाबालिग अपराधियों की उम्र-सीमा 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष की गई. इस बिल में जघन्य अपराधों के मामले में न्यूनतम 3 साल से लेकर 7 साल तक कैद की सजा का प्रावधान किया गया है, जबकि सामान्य अपराधों के लिए न्यूनतम सजा 3 साल कैद होगी.

2000 के ऐक्ट के मुताबिक, यदि कोई बच्चा कानून तोड़ता है, चाहे वह किसी भी तरह का अपराध हो, उसे ज्यादा से ज्यादा तीन साल के लिए बाल सुधार गृह में रखा जा सकता है.

बच्चे को तीन साल से ज्यादा की सजा किसी भी हालत में नहीं दी जा सकती, न ही उसपर किसी वयस्क की तरह मुकदमा चलाकर वयस्कों की जेल में भेजा सकता है.

प्रस्तावित बिल में भी 18 साल से कम के अपराधियों के लिए यही बात कही गई है, लेकिन उसमें एक बदलाव है. इस बिल के मुताबिक जघन्य अपराध करने वाले 16-18 वर्ष के आयु वर्ग के जुवेनाइल पर वयस्कों की तरह मुकदमा चलाया जाना चाहिए.

जुवेनाइल जस्टिस बिल बच्चे की मानसिक और शारीरिक क्षमता का, अपराध के परिणामों को समझने की क्षमता आदि का भी आंकलन करेगा. इस आंकलन के आधार पर चिल्ड्रन्स कोर्ट यह निश्चित करेगा कि क्या किसी बच्चे पर वयस्क की तरह मुकदमा चलाया जाना चाहिए.